साखी
- कबीर
1. मीठी वाणी बोलने से औरों को सुख और अपने तन को शीतलता कैसे
प्राप्त होती है?
मीठी वाणी से अपने तन को शीतलता तथा औरों को सुख इसलिए मिलता है क्योंकि मीठी वाणी से मन का आपा (क्रोध) का भाव जो हम सभी को दुखी करता है वह मिट जाता है इसलिए मीठी वाणी बोलने से अपने तन को शीतलता तथा औरों को सुख मिलता है।
2. दीपक दिखाई देने पर अँधियारा कैसे मिट जाता है साखी के संदर्भ में स्पष्ट कीजिए।
दीपक और अंधकार कभी भी एक साथ नहीं रह सकते यही कारण है की दीपक के दिखते ही
अंधकार मिट जाता है कबीर इसके माध्यम से हमें यह समझाना चाहते हैं कि हमारे मन में
ईश्वर और अहंकार दोनों एक साथ नहीं रह सकते यदि हमारे मन में अहंकार का वास है तो
हमें ईश्वर की सत्ता का आभास नहीं हो सकता है और यदि हमें ईश्वर की सत्ता का आभास
हो रहा है तो अहंकार की सत्ता अब हमारे अंदर नहीं मिलेगी।
(साखी में “मैं” का अर्थ अहंकार और “हरि” का अर्थ ईश्वर है।)
3. ईश्वर घट-घट में व्याप्त है, पर हम उसे क्यों नहीं देख पाते?
सच है कि ईश्वर घट-घट
में यानि हमारे ही भीतर विद्यमान हैं पर हम उसे इसलिए नहीं देख पाते क्योंकि हमारी
दृष्टि हिरण की तरह बाहर ही ईश्वर की खोज कर रही है अपने अंतरंग में नहीं। यदि
हमें भी ईश्वर की प्राप्ति करनी है तो हमें अपना नज़रिया बदलने की आवश्यकता है।
4. संसार में सुखी और दुखी व्यक्ति कौन है? यहाँ 'सोना' और 'जागना' किसके प्रतीक हैं? इसका प्रयोग यहाँ क्यों किया गया है? स्पष्ट कीजिए।
कबीर के अनुसार इस साखी में सोना अज्ञानता का प्रतीक है और जागना ज्ञानी होने
का प्रतीक है। अब जो व्यक्ति सांसारिक दुखों में डूबकर भी अपने को सुखी मानकर
मात्र भोग विलासिता में ही लगा है वह दूर से देखने पर भले ही सुखी दिखाई देता हो
पर अंतराग से वह दुखी ही है।
तथा जो सांसारिक दुखों में दुख की ही अनुभूति करता है वह भले ही दूर से रोता हुआ दिखाई दे पर अंतरंग से वह ईश्वर की आराधना में मस्त है।
5. अपने स्वभाव को निर्मल रखने के लिए कबीर ने क्या उपाय सुझाया है?
कबीर का कहना है कि यदि हम अपने स्वभाव को निर्मल, निष्कपट और सरल बनाए रखना चाहते हैं तो जो हमारी निंदा करने वाला निंदक व्यक्ति है, जो हमारी आलोचना करता है। हमें अपने आँगन में कुटी बनाकर उस निंदक को सम्मान के साथ रखना चाहिए। तथा वे हमारी जिन त्रुटियों को हमसे अवगत कराते हैं उन्हें दूर करके हम अपने स्वभाव को निर्मल बना सकते हैं।
6. 'ऐके आषिर पीव का, पढ़ै सु पंडित होई'- इस पंक्ति द्वारा कवि क्या कहना चाहता है?
कवि इस पंक्ति द्वारा यह कहना चाहता है कि मात्र पोथी पढ़कर कोई ज्ञानी, विद्वान नहीं बनता है। ज्ञानी विद्वान बनने
के लिए प्रेम का एक अक्षर पढ़ना ही काफ़ी है। क्योंकि वस्तुतः जीवन का आधार प्रेम
है। प्रेम अर्थात् सरलता, प्रेम अर्थात् वात्सल्य, प्रेम अर्थात् प्रमोदभाव, प्रेम अर्थात् करुणाभाव, प्रेम अर्थात् समताभाव।
यदि कोई जीव पोथी पढ़कर भी अपने अंदर सरलता, वात्सल्य, प्रमोदभाव, करुणाभाव और समताभाव न ला सके तो वह पंडित अर्थात् ज्ञानी, विद्वान कैसे बन सकता है? लेकिन जिसने पोथी न पढ़ी हो और यदि उसके अंदर सरलता, वात्सल्य, प्रमोदभाव, करुणाभाव और समताभाव हो तो वह भी पंडित अर्थात् ज्ञानी, विद्वान ही कहलाता है।
7. कबीर की उद्धृत साखियों की भाषा की विशेषता स्पष्ट कीजिए।
कबीर का अनुभव क्षेत्र विस्तृत था। कबीर जगह-जगह भ्रमण कर प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करते थे। अत: उनके द्वारा रचित साखियों में अवधी, राजस्थानी, भोजपुरी और पंजाबी भाषाओं के शब्दों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। इसी कारण उनकी भाषा को 'पंचमेल खिचड़ी' कहा जाता है। कबीर की भाषा को सधुक्कडी भी कहा जाता है। वे जैसा बोलते थे वैसा ही लिखा गया है। भाषा में लयबद्धता, उपदेशात्मकता, सहजता के साथ प्रवाहपूर्ण सरल शैली है। लोकभाषा का भी प्रयोग हुआ है; जैसे - खायै, नेग, मुवा, जाल्या, आँगणि आदि।
8. बिरह भुवंगम तन बसे, मंत्र न लागै कोइ। भाव स्पष्ट कीजिए -
कबीर ने यहाँ विरह की वेदना को सर्पदंश माना है और इस विरह की वेदना में
मनुष्य पर कोई मंत्र या दवा काम नहीं करती ऐसी स्थिति में मनुष्य की दो दशाएँ होती
हैं –
1. या तो वह विरह की वेदना में में तड़पता हुआ पागलों सा जीवन व्यतीत करता है।
2. या फिर वह अपने प्राण त्याग देता है।
अतः राम अर्थात् ईश्वर का वियोगी व्यक्ति को जब तक उसे राम की प्राप्ति न हो जाए तक वह उपरोक्त दो स्थितियों में ही रहता है।
भाषा अध्ययन:
पाठ में आए निम्नलिखित शब्दों के प्रचलित रुप उदाहरण के अनुसार लिखिए।
जिवै - जीना
औरन - औरों को
माँहि - के अंदर (में)
देख्या - देखा
भुवंगम - साँप
नेड़ा - निकट
आँगणि - ऑगन
साबण - साबुन
मुवा - मुआ
पीव - प्रेम
जालौं - जलना
तास - उसका
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