रविवार, 3 अगस्त 2025

तीसरी कसम के शिल्पकार: शैलेंद्र - प्रहलाद अग्रवाल

 

तीसरी कसम के शिल्पकार: शैलेंद्र

- प्रहलाद अग्रवाल

1.     'तीसरी कसम' फ़िल्म को कौन-कौन-से पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है?

          राष्ट्रपति स्वर्णपदक, बंगाल फ़िल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन द्वारा सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का पुरस्कार और मास्को फ़िल्म फेस्टिवल पुरस्कार से 'तीसरी कसम' फ़िल्म को सम्मानित किया गया है।

2.     राजकपूर द्वारा निर्देशित कुछ फिल्मों के नाम बताइए।

          मेरा नाम जोकर, सत्यम् शिवम् सुन्दरम्, संगम, प्रेमरोग, अजंता, जागते रहो, मैं और मेरा दोस्त आदि राजकपूर द्वारा निर्देशित कुछ फिल्मों के नाम हैं।

3.     'तीसरी कसम' फ़िल्म के नायक व नायिकाओं के नाम बताइए और फ़िल्म में इन्होंने किन पात्रों का अभिनय किया है?

          'तीसरी कसम' के नायक राजकपूर और नायिका वहीदा रहमान थीं। राजकपूर ने इस फ़िल्म में 'हीरामन' गाड़ीवान का किरदार और वहीदा रहमान द्वारा नौटंकी कलाकार 'हीराबाई' का किरदार निभाया गया था।

4.     समीक्षक राजकपूर को किस तरह का कलाकार मानते थे?

समीक्षक राजकपूर को कला मर्मज्ञ तथा आँखों से बात करनेवाला कलाकार मानते थे।

5.     'तीसरी कसम' फ़िल्म को 'सैल्यूलाइड पर लिखी कविता' क्‍यों कहा गया है?

सैल्यूलाइड अर्थात् रील; जैसे रील पर उतरते चित्र एक के बाद एक दृश्य प्रस्तुत करते हुए पूरी कहानी बड़ी सहजता से बता देते हैं वैसे ही यह फ़िल्म एक आम आदमी के जीवन की कहानी को सहज रूप में प्रस्तुत कर देती है।

इस फ़िल्म को देखकर कविता जैसी अनुभूति होती है क्योंकि यह फ़िल्म भी कविता के समान भावुकता, संवेदना, मार्मिकता से भरी हुई कैमरे की रील पर उतरी हुई फ़िल्म है। जिसमें हम स्वयं के जीवन को महसूस कर पाते हैं और उस कविता जैसी कहानी में कहीं खो से जाते हैं। बस इसलिए 'तीसरी कसम' फ़िल्म को 'सैल्यूलाइड पर लिखी कविता' कहा गया है।

6.     'तीसरी कसम' फ़िल्म को खरीददार क्‍यों नहीं मिल रहे थे?

          यह फ़िल्म एक सामान्य कोटि की मनोरंजक फ़िल्म न होकर एक उच्च कोटि की साहित्यिक फ़िल्म थी। इस फ़िल्म में अनावश्यक मनोरंजक मसाले नहीं डाले गए थे। अतः कोई जोखिम उठाने को तैयार नहीं था इसलिए 'तीसरी कसम' फ़िल्म को खरीददार नहीं मिल रहे थे।

7.     शैलेंद्र के अनुसार कलाकार का कर्तव्य क्या है?

          शैलेन्द्र के अनुसार हर कलाकार का यह कर्तव्य है कि वह दर्शकों की रुचियों को ऊपर उठाने का प्रयास करें न कि दर्शकों का नाम लेकर सस्ता और उथला मनोरंजन उन पर थोपने का प्रयास करे।

 

 

8.      राजकपूर द्वारा फ़िल्म की असफलता के खतरों से आगाह करने पर भी कवि शेलेंद्र ने यह फ़िल्म क्‍यों बनाई?

          राजकपूर जैसे अनुभवी निर्माता के आगाह करने के बावजूद शैलेन्द्र ने फ़िल्म इसलिए बनाई क्‍योंकि उन्हें धन-सम्मान की कामना नहीं थी वे तो केवल अपनी आत्मसंतुष्टि, अपनी मन की भावनाओं की अभिव्यक्ति और दर्शकों के मन को छूना चाहते थे। इसलिए नफ़ा-नुकसान के परे और अपने कलाकार मन के साथ समझौता न करते हुए उन्होंने फ़िल्म का निर्माण किया।

9.      'तीसरी कसम' में राजकपूर का महिमामय व्यक्तित्व किस तरह हीरामन की आत्मा में उतर गया है? स्पष्ट कीजिए।

          तीसरी कसम फ़िल्म में राजकपूर जी ने हीरामन का किरदार कुछ इस तरह निभाया कि लोग भूल ही गए कि यह मात्र एक फ़िल्मी किरदार मात्र है जिसका अभिनय राजकपूर कर रहे हैं। उन्होंने हीरामन को आत्मसात् करते हुए भी अपने आप को उस पर हावी नहीं होने दिया था।

          राजकपूर ने हीरामन गाड़ीवान का भोलापन, हीराबाई में अपनापन खोजना, उसकी उपेक्षा पर अपने ही आप से जूझना आदि को इतनी खूबसूरती से पेश किया है कि लोग उस हीरमान में राजकपूर को कहीं खोज ही नहीं पाए।

10.  लेखक ने ऐसा क्यों लिखा है कि 'तीसरी कसम' ने साहित्य-रचना के साथ शत-प्रतिशत न्याय किया है?

          तीसरी कसम एक शुद्ध साहित्यिक फ़िल्म थी। इस कहानी के मूल स्वरुप में जरा भी बदलाव नहीं किया गया था। क्योंकि इस फिल्म की पटकथा और मूल कहानी (मारे गए गुलफ़ाम) के लेखक फणीश्वरनाथ रेणु ही हैं साथ ही शैलेन्द्र ने इस फ़िल्म में दर्शकों के लिए किसी भी प्रकार के काल्पनिक मनोरंजन को जबरदस्ती स्थान नहीं दिया था। इसलिए लेखक ने ऐसा लिखा है कि 'तीसरी कसम' ने साहित्य-रचना के साथ शत-प्रतिशत न्याय किया है।

11.  शैलेंद्र के गीतों की क्‍या विशेषताएँ हैं? अपने शब्दों में लिखिए।

          शैलेन्द्र के गीत सरल, सहज, संदेशात्मक और मन को छूनेवाले होते थे। उनके गीतों में गहराई के साथ आम आदमी से जुड़ाव भी होता था। उनके गीतों में समस्या से जूझने के साथ समस्या से निपटने के उपाय भी शामिल होते थे।

12.  फ़िल्म निर्माता के रूप में शैलेंद्र की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।

          तीसरी कसम फ़िल्म निर्माता के रूप में शैलेन्द्र की पहली और अंतिम फ़िल्म थी। यह फ़िल्म उन्होंने बिना किसी व्यावसायिक लाभ, प्रसिद्धि की कामना नकरते हए केवल अपनी आत्मसंतुष्टि के लिए बनाई थी। उनके सीधे-साधे व्यक्तित्व की छाप उनकी फ़िल्म के किरदार हीरामन में बखूबी दिखाई देती है। शैलेन्द्र फ़िल्म निर्माण के खतरों से परिचित होकर भी एक शुद्ध साहित्यिक फ़िल्म का निर्माण कर अपने साहसी होने का परिचय दिया है। सिद्धांतवादी होने के कारण उन्होंने अपनी फ़िल्म में कोई भी परिवर्तन स्वीकार नहीं किया।

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